बरसात की एक रात
लेखक भी बड़े अजीबोगरीब होते है। बात आज से करीब 40 साल पहले की है। माधव दास जो कलकत्ते शहर में रहता था। घर का इकलौता लड़का था और बड़ी मुश्किल से उसे बंगाल के एक बेहद पिछड़े से गांव में सरकारी शिक्षक की नौकरी मिली थी। स्कूल बिल्कुल सन्नाटे में था। बच्चों को भी लगभग 8 किलोमीटर की दूरी तय कर के स्कूल आना पड़ता था। छोटे छोटे जंगलों और पहाड़ों से घिरा क्षेत्र था ये। 3-4 किलोमीटर की दूरी पर बहुत से गांव थे।
माधव दास वैसे तो बोलचाल में बांग्ला भाषा का प्रयोग करता था, लेकिन हिंदी में कविताएं और कहानियां लिखता था वो। उसकी कहानियां भी किसी उपन्यास से कम नहीं होती थी। स्कूल से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर उसने किराए का एक दोमंजिला मकान ले रखा था। असल में ये मकान गांव के जमींदार का था, कुछ सालों पहले उनका लड़का इसी मकान में रहता था और दूर दूर तक फैले उनके खेतों की रखवाली भी करता था। फ़िलहाल उसकी मृत्यु एक रात बेहिसाब बारिश के बाद रहस्यमय ढंग से हो चुकी थी,और तब से ये मकान खाली ही था। शिक्षक पद की इज्ज़त करते हुए जमींदार ने माधव दास को ये मकान बहुत ही सस्ते भाव में दे रखा था।
उस मकान के छत से दूर दूर तक फ़ैले खेत नज़र आते थे। माधव दास एक रसोइयां के साथ इस घर में लगभग पिछले एक महीने से रह रहे थे। उन्हें ये घर काफ़ी पसंद था। वे स्कूल से लौटने के बाद घँटों घर के ऊपरी मंजिल के चौड़े बालकनी में बैठे रहते थे। बाहर घनघोर अंधेरा, दूर दूर तक फ़ैली जौ या गेंहू की फसलें जिनसे हवा टकराती तो साय साय आवाजें होने लगती। अपने बालकनी के मुंडेर पर वे एक लालटेन जलाएं रखते और उस लालटेन की मद्धिम रौशनी में बैठकर माधव दास अक्सर प्रेम कहानियां लिखा करते। चांद की रौशनी भी अपने पूर्णतया के दिनों में माधव दास का साथ देती थी।
ख़ैर माधव दास के साथ रह रहे रसोइयां का परिवार पास के ही गांव का था। एक बार की बात है ऐसी ही बरसाती अमावस्या की रात थी। माधव दास का रसोइयां सुबह से ही कुछ बीमार था और अंत में रात के आठ बजे करीब उसने माधव दास से कहा कि वो अपने घर जाना चाहता है। खाना वो वैसे भी बना चुका था।
माधव दास ने उसे अपनी साईकल दे दी और कहा सुबह तुम्हारी तबियत ठीक रही तो आ जाना या किसी से भी साईकल भिजवा देना। रसोइयां साईकल लेकर घर की तरफ़ रवाना हो गया।
माधव दास भी घर के मुख्य दरवाजें को बंद कर जल्दी से दोमंजिला मकान के ऊपरी तल्ले पर चला गया। आज वातावरण में ठंड कुछ ज़्यादा ही थी। माधव दास साल ओढ़े कलम थामे बैठे थे।
अचानक मौसम बदलने लगा....बादल गरजने लगे और तेज बारिश भी शुरू हो गयी। हवा की चोट से लकड़ी की खिड़कियां आपस में टकराने लगी और फ़िर बहुत देर तक जंग लड़ने के बाद आखिरकार जल रहा लालटेन बुझ ही गया।
बहुत देर तक अंधेरे में ख़ामोश बैठे रहने के बाद माधव दास ने डायरी बंद कर दी....वे खाना ख़ाकर सोना चाहते थे कि तभी उन्हें दूर खेत की पतली पगडंडियों से तेज़ तेज़ उसी घर की तरफ़ आती हुई एक आकृति दिखी। बिजली के चमकने से वो दिखती और फ़िर जैसे ही आसमान में अंधेरा होता तो वो आकृति भी बिल्कुल गायब हो जाती।
माधवदास एकटक उसे ही देख रहें थे इतनी रात गए शायद बारिश की वजह से कोई रास्ता भटक गया है। लेकिन बड़ी अजीब बात है ये आकृति तो किसी लड़की की लग रही है।
ख़ैर अब भी वो लड़की लगातार माधव दास के घर के तरफ़ ही चली आ रही थी कि तभी...अचानक गायब। एक बार ज़ोर की बिजली चमकी और वो जो एक स्त्री की परछाई सी थी, अंधेरे में बेख़ौफ़ चली आ रही थी वो अचानक ही गायब हो गयी। माधव दास ने झुरझुरी सी महसूस की और उनका दिल भी सामान्य से अधिक तेज़ी में धड़कने लगी।
वे इसके बाद भी कुछ देर तक वहीं बालकनी के मुंडेर पर खड़े खेतों की तरफ़ ही देखते रहें लेकिन जब वो आकृति उन्हें दुबारा नहीं दिखी तो वे ख़ुद को संभालते हुए अपने कमरे में चले गए। लालटेन को दुबारा जलाया और अभी तक वे जिस कहानी को लिख रहे थे उसे दुबारा पढ़ने लगे।
लेकिन तभी सांकल के बजने की आवाज़ आयी। नीचे कोई लकड़ी के दरवाजें पर लगे सांकल को ज़ोर ज़ोर से पीट रहा था। इस बार भी डरकर माधव दास के रौंगटे खड़े हो गए...लेकिन चूंकि वो पेशे से एक मास्टर जी थे इसलिए उन्होंने हिम्मत का साथ नहीं छोड़ा और बालकनी के मुंडेर पर दुबारा गए ऊपर से ही वे नीचे झांकने लगे जहां से मुख्य द्वार दिखाई देता है। लेकिन उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा नीचे दरवाज़े के पास कोई नहीं था....वे अपने सर को बार बार आगे कर के नीचे अच्छे से देख रहे थे लेकिन वहां कोई नहीं था। इसी क्रम में माधव दास के बाल भी बिल्कुल भींग चुके थे।
उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी। वे अब तक हताश नीचे देख रहें थे...लेकिन तभी उन्हें डर का हल्का सा अहसास हुआ और वे वापस अपने कमरे में चले गए इस बार उन्होंने कमरे का किबाड़ भी बन्द कर दिया।
लेकिन फिर महज़ पांच मिनट बाद दुबारा दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आयी। इस बार वे पहले से ज़्यादा सतर्क हो गए और मन को मजबूत करते हुए सीधे नीचे चले गए। दरवाज़े की खटखटाहट अब भी जारी थी। माधव दास ने एक धड़ल्ले से किवाड़ खोल दिया और तभी ज़ोर से मेघ गरजने के साथ साथ बिजली चमकी और दो बेहद मासूम आँखों से माधव दास की आँखे टकराई।
"मैं...मै...मैं सुमन हूँ। रास्ता भटक गयी हूँ। मुझे आज रात यहां ठहरने देंगे। मैं आपके रसोइये की बेटी हूँ, शाम के वक़्त हाट गयी थी लौटने में देर हो गयी। मैं बाबा के कमरे के बाहर ही सो जाउंगी। सुबह होते ही लौट जाउंगी"।
इतना कहकर वो आँखे नीची कर फ़र्श को देखने लगी। उसके लंबे बालों से अब भी बरसात का पानी टपक रहा था। माधव दास ने उस से भीतर आने को कहा और फ़िर उसे बताया कि आज तो उसके पिता घर वापस चले गए है, उनकी तबियत ठीक नहीं थी इसलिए। ये सुनकर सुमन घबरा गई।
लेकिन माधव दास ने उस से कहा "सुमन तुम अपने पिता के कमरे में ही सो जाओ, अगर साईकल होती तो मैं तुम्हें घर तक छोड़ आता लेकिन साईकल लेकर तो मैंने तुम्हारे बाबा को ही घर भेज दिया है"। इस घनघोर बरसात में तुम्हारा जाना सही नहीं है। सुबह जब तुम्हारे बाबा आएंगे उनसे मिलकर तुम चली जाना बहन। खाना रसोई में बना हुआ है, तुम बाबा के कमरे में जाकर कपड़े बदल लो कमरे में धोतियाँ होंगी उन्हीं का इस्तेमाल करो ख़ुद के लिए भी खाना निकाल मुझे भी परोस देना"।
अक्सर मैं और तुम्हारे बाबा एक साथ खाते है। इतना कहकर माधव दास चौकी में बैठ गए। और सुमन सर को हा की दिशा में हिलाकर अपने बाबा के कमरे में चली गयी। थोड़ी ही देर बाद सुमन धोती को साड़ी की तरह पहनकर बाहर निकली उसके खुले बाल भी अब जुड़े में बंध चुके थे। बिना कुछ कहे ही वो रसोई की तरफ़ चली गयी और दो बर्तनों में खाना परोस लाई।
गहरी काली शून्य सी आंखे। सूखे होंठ और जैसे सदियों से ना सोने पर आँखों के निचे बने काले निशान। सुमन की मासूमियत के पीछे छुपे थे शायद उसके बेरहम दिनों की अंतहीन व्यथा। वो सर नीचे किये चुपचाप रोटियां खा रही थी। माधव दास ने ही उस से पूछा " सुमन एक बात बताओ बहन, तुम जब खेत की पगडंडियों से चलकर आ रही थी तभी बहुत दूर से ही तुम मुझे दिख गयी थी। बिजली के चमकने पर तुम दिखती परछाई की तरह और कभी नहीं दिखती लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि एक दो बार बिजली चमकने पर भी तुम मुझे नहीं दिखाई पड़ी, और तो और दरवाजे के खटखटाने के बाद भी तुम गायब हो जाती मैं ऊपर मुंडेर से झाँकता तो नीचे कोई नज़र नहीं आता। मुझे तो लगा शायद आज किसी भूतनी से ही मेरा पाला पड़ चुका है। तुम बताओगी ये कारनामा तुमने कैसे किया बहन"...?
इतना कहकर माधव दास हँसने लगे और शर्माकर मुस्कुराते हुए सुमन ने बड़ी चालाकी से अपने पैरों को धोती के नीचे छुपा लिया। उसके पैर जिसपर माधव दास ने ग़ौर नहीं किया था कि वे शुरुआत से ही उल्टे थे। भींगे पैरों से अंदर आते वक्त भी सुमन के पैरों के निशान बिल्कुल उल्टे ही थे। इसके बाद सुमन ने कहा " भैया बाबा कहते थे बिजली चमकने पर खुले खेत मे अगर हो तो ज़मीन पर लेट जाना चाहिए इसलिए बीच बीच में मैं पगडंडियों पर लेट जा रही थी, और आपके मुख्य दरवाज़े के उपर कोई छपरा नहीं है ना इसलिए दरवाज़ा खटखटाकर मैं घर के किनारे बने छपरे के नीचे छुप जा रही थी, ताकि तेज़ बारिश के छींटों से ख़ुद को बचा पाऊँ। शायद इसी दौरान आप मुझे नहीं देख पा रहे होंगे"।
हम्म यही बात होगी। मैं भी ना बिल्कुल बेवकूफ़ हूँ। इतना बोलकर माधव दास फ़िर हँसने लगे और शुभरात्रि बोलकर वापस अपने ऊपरी मंजिल पर बने कमरे में चले गए।
सुमन भी थाली हटाकर सोने चली गयी।
लेकिन सुबह सुमन गायब थी। बिल्कुल जैसे रात उसके यहां रुकने का कोई नामों निशान ही नहीं था। माधव दास हैरान थे इस तरह बिना बताएं जाने का भला क्या आशय हो सकता है..?
तभी उन्हें रसोईयां आता दिखा। साईकल से। उनके आते ही माधव दास ने पहले उनकी तबियत पूछी और फ़िर रात के किस्से के बारे बताया। पूरी कहानी सुनने के बाद वे फूटफूटकर रोने लगे। और फ़िर उन्होंने एक आश्चर्यजनक बात बताई उन्होंने कहा कि "...जब जमीदार जी का बेटा यहां रहा करता था तब भी वे यहां रसोई का काम करते थे एक रात ऐसी ही बारिश के वक़्त सुमन यहां पनाह लेने आयी थी। लेकिन अफ़सोस उस रात भी मैं घर चला गया था। सुबह उसकी लाश मुझे खेतों में मिली थी। बात को छुपा दी गयी थी मास्टर साहब मेरी बेटी का उस रात बलात्कार हुआ था। और फ़िर उसे मार दिया गया था। इस घटना के करीब 3 दिनों बाद ही जमीदार का बेटा यहां मरा हुआ पाया गया। मैं उसी वक़्त समझ गया था सुमन की आत्मा ने अपना बदला ले लिया था।
अच्छा हुआ मास्टर जी बहुत बहुत अच्छा हुआ आपने उसे बहन कहकर पुकारा"।
समाप्त
Sahil writer
05-Jul-2021 12:20 PM
Wah
Reply
Aliya khan
16-Jun-2021 07:12 PM
बेहतरीन कहानी
Reply
ऋषभ दिव्येन्द्र
16-Jun-2021 07:04 PM
शानदार जानदार कहानी बुनी आपने 👌👌
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